Thursday, 16 June 2016

साहेब (Saaheb) 1985


फ़िल्म साहेब अनिल कपूर की बेहतरीन फिल्मों में से एक हैं। यह फ़िल्म 31 जनवरी 1985 को रिलीज हुई थी। फ़िल्म के निर्माता थे रजनी गांगुली और निर्देशक थे अनिल गांगुली। 
फ़िल्म में संगीत दिया था सचिन भौमिक ने।
फ़िल्म 'साहेब' में मुख्य भूमिका में थे - अनिल कपूर, राखी गुलजार, उत्तपल दत्त, अमृता सिंह, देवेन वर्मा, विश्वजीत, विजय अरोड़ा, दिलीप धवन, ए के हंगल, पिंचू कपूर आदि।

फ़िल्म की कहानी -

बद्री प्रसाद शर्मा (उत्तपल दत्त) एक सेवानिवृत इंसान हैं जो ईमानदारी से कमा कर अपना जिंदगी गुजर बसर करते हैं। उनकी पत्नी का देहांत हो चुका है। बद्री शर्मा को चार बेटे और एक बेटी है। उनके सबसे बड़े बेटे (विश्वजीत) की पत्नी सुजाता (राखी गुलजार) एक समझदार और पुरे घर को संभालने वाली सुघड़ गृहणी है। बद्री शर्मा का दूसरा बेटा कमल शर्मा (विजय अरोड़ा) और तीसरे बेटे (दिलीप धवन) भी शादी शुदा हैं। सभी अपने ही काम में इतने व्यस्त रहते हैं कि एक दूसरे की फ़िक्र ही नहीं।
बद्री शर्मा का सबसे छोटा बेटा है सुनील शर्मा उर्फ़ साहेब। वो एक लोकल फ़ुटबाल टीम में गोलकीपर है। साहेब को फुटबॉल से बहुत ही प्रेम है। लेकिन उसके घर में उसे सभी निखट्टू और निठल्ला ही समझते हैं। कोई भी उसे महत्व नहीं देता है। सभी उससे अपने पर्सनल काम करवाते रहते हैं। यहां तक कि बद्री शर्मा भी अपने बेटे साहेब को बेकार इंसान समझते हैं और फुटबॉल की बजाय उसे कोई नौकरी ढूंढने की सलाह देते रहते हैं। 
लेकिन साहेब की सबसे बड़ी भाभी सुजाता साहेब को अपने बेटे के समान स्नेह करती है और उसके तमाम सुख दुःख को बांटती है। साहेब भी अपनी बड़ी भाभी को अपनी माँ समान इज्जत देता है।
एक दिन साहेब की मुलाक़ात उसी की छोटी बहन गीता उर्फ़ बुल्टी की सहेली नताशा (अमृता सिंह) से हो जाती है। दोनों एक दूसरे को अपना दिल दे बैठते हैं और एक दूसरे को चाहने लगते हैं। 
तभी बद्री प्रसाद के पास उनकी बेटी गीता की शादी के लिए रिश्ता आता है। बात आगे बढ़ती है और शादी तय हो जाती है। लेकिन शादी में दहेज आदि खर्च मिला कर पचास हजार रूपये खर्च का बजट बैठता है। बद्री प्रसाद शर्मा तो ये सोच कर इत्मिनान थे कि उनके तीन कमाऊ बेटे मिलकर आसानी से इस शादी के खर्च को उठा लेंगे।मगर उन्हें तब काफी तकलीफ होती है जब उनके तीनों बेटे आर्थिक तंगियों का हवाला दे कर कोई भी रकम देने से मुकर जाते हैं।
तब हालात से मजबूर बद्री प्रसाद अपना घर बेचने को तैयार हो जाते हैं। ये देख गीता को बहुत दुःख होता है और वो अपनी बड़ी भाभी सुजाता के पास जा कर कहती है कि इस शादी को रोक दो क्यों कि वो नहीं चाहती कि उनके भाइयों के सर से छत छिना जाय।
संयोग से साहेब भी वहीँ मौजूद था और वो अपनी बहन की शादी हर हाल में बिना घर बेचे करवाने का वायदा करता है। 
तभी वो एक अखबार में एक विज्ञापन देखता है जिसमे किसी को एक किडनी की आवश्यकता थी। साहेब जब डॉक्टर (ए के हंगल) के पास जा कर इस विज्ञापन के विषय में पूछता है तो तो डॉक्टर उसे बताते हैं कि किडनी देने के बाद वो फुटबॉल नही खेल पायेगा।लेकिन साहेब किसी भी तरह अपनी बहन की शादी करवाने के लिए किडनी बेचने को अडिग हो जाता है। तब डॉक्टर उसे उद्योगपति S.P सिन्हा (पिंचू कपूर) से मिलवाते हैं। सिन्हा के जवान बेटे की दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं और वो अपने बेटे की जिंदगी बचाने के लिए कोई भी कीमत देने को तैयार है।साहेब अपनी किडनी सिन्हा के बेटे को देने की एवज में पचास हजार रूपये की मांग करता है। जब सिन्हा उसे पचास हजार रूपये देने को राजी हो जाता है तब साहेब सिन्हा को कहता है कि आप मुझे अपनी कम्पनी में कोई छोटी मोटी नौकरी दे दीजियेगा,ताकि मैं आपके पचास हजार रूपये वापिस कर सकूँ। 
फिर साहेब वह पचास  हजार रूपये अपने पिता बद्री प्रसाद  को दे देता है और कह देता है कि उसे ये रूपये पुणे में दीदी ने दिए हैं। और फिर साहेब अपने पिता को अपना घर ना बेचने की भी बात कहता है। वो अपने किडनी बेचने की बात सबसे छिपा लेता है और कहता है कि कल एक जरुरी फुटबॉल मैच खेलने दिल्ली जा रहा है।
अगली सुबह वह बिना किसी से मिले दिल्ली जाने के बहाने किडनी देने अस्पताल में भर्ती हो जाता है। इधर उसकी बहन की शादी हो रही होती है और उधर साहेब अस्पताल में जिंदगी और मौत की जंग  लड़ रहा होता है। अगली सुबह जब गीता शादी कर घर से विदा हो जाती है तब पुणे से दीदी आती है। तब ये राज खुलता है कि दीदी ने कोई पचास हजार रूपये नहीं दिए थे। तब सुजाता भाभी उस अखबार में छपे उस विज्ञापन को देखती है जिसमे किडनी के बारे में छपा था। सुजाता को सन्देह होता है तो वो नताशा के साथ अस्पताल जाती है और वह वहां ICU में बेहोश पड़े साहेब को देखती है। तब सिन्हा उसे सारी बातों की जानकारी देता है।
उधर घर में साहेब के सभी भाई साहेब को चोर समझ रहे थे क्यों कि साहेब ने पचास हजार रूपये के स्रोत की जानकारी नहीं दी थी। तभी सुजाता अस्पताल से वापस घर आती है और सबको साहेब के कुर्बानी के बारे में बताती है। साहेब के पिता बद्री प्रसाद को भी साहेब की कुर्बानी का पता चलता है तो उन्हें अपने व्यवहार पर बड़ा पछतावा होता है कि जिस बेटों पर उन्हें गर्व था वो उनके कुछ काम ना आया, लेकिन जिस बेटे को वो नकारा समझते थे वही बेटा उनके लिए इतनी बड़ी कुर्बानी दे दिया।
अगली सुबह बद्री प्रसाद और सुजाता साहेब को देखने अस्पताल जाते हैं। वहां सिन्हा बद्री प्रसाद को एक लिफाफा देता है और बताता है कि उसने साहेब को अपनी कम्पनी में मैनेजर की नौकरी दे दी है।
तभी साहेब को होश आ जता है और अपने पिता को अपने पास देख कर फुला नहीं समाता है।
शीघ्र ही वो ठीक हो कर सिन्हा टेक्सटाइल में मेनेजर की नौकरी ज्वाइन कर लेता है और नताशा से शादी भी कर लेता है।

समीक्षा - फ़िल्म की कहानी काफी अच्छी है। बेहतरीन निर्देशन और बेहतरीन अदाकारी से फ़िल्म में जान डाल दी है। पारिवारिक स्तर पर यह फ़िल्म काफी अच्छी है। इस फ़िल्म को 5 में से 4 अंक मिलते हैं। 

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